
— मनु शिवपुरी —
*मेरी गुड़िया*
मेरी गुड़िया, प्यारी गुड़िया -कहीं वो खो गयी ,
बहुत ढूँढा-नही मिलती -कहीं वो सो गयी ।
मिलकर गूथें थे जो सपनें- सबको वो धो गयी ,
पापा की लाडली -गुड़िया-कही-वो-खो गयी ।।
उसकी आवाज़ से – किलकारियों से-
गूँजता था घर अपना ,
कभी चूड़ियाँ खनकती उसकी –
कभी देखती-गुड़िया का वो सपना ,
जाग गया हैं -ये जहाँ अब –
तू न जाने -कहाँ सो गयी,
मेरी गुड़िया — प्यारी गुड़िया
न जानें कहाँ खो गयी ।।
हर पल रखती थी मैं –
तुझको छुपा कर-बचा कर के,
किस्से -कहानी सुनाती थी मैं-
तुझको जहाँ भर के .,
कभी डराती भी मैं -तुझको –
जहाँ के -उन दरिंदों से ,
घर-घर मे छुपे रहते -है वो–
भर-भर वेश -मानवों के ,
फिर कैसे-तेरा हाथ छूटा-
तू न जानें कहाँ खो गयी ,
मेरी बिटिया- नन्ही बिटियां
न जाने कहाँ – खो गयी —
अभी तो – कोमल थी बहुत –
दरिंदों ने क्यूँ -नोंचा हैं उसे ,
अभी तो- नाजुक थी बहुत-
कैसे – क्यूँ ???? रौंदा हैं उसे,
टुकड़े -टुकड़े हुआ – बदन उसका-
न चीखीं— न चिल्लायी,
हे मर्द —हे दरिंदे—
क्या तुझे शरम – भी न आयी,
कभी-झाड़ी,कभी-कूड़े – कभी नाले में —
अब वो सो गयी—
मेरी गुड़िया — नन्ही गुड़िया —
कहीं अब खो गयी —–
-मनु शिवपुरी-